Monday, July 15, 2019

प्रेम करना सीखूंगा

बरगद,
तुमसे प्रेम करना सीखूंगा।
शाखाओं से कान लगा,
रूह में उतर कर जानूंगा,
कि टहनियों पर कुल्हाड़ियाँ चलने पर भी,
नयी टहनी तुमने कैसे अपार प्रेम से उगायीं?
बीतें सौ साल, किस तरह धरा संग बितायी?
प्रेममय हो कितने पंछियों को तुमने बसाया?
और जन्मते पत्तियों को मरते देख नहीं हारे?
बरगद, तुमसे प्रेम करना सीखूंगा!

Tuesday, January 15, 2019

कल आज और कल

बचपन की इक रात को,
उजली बिजली में,
जड़ से एक बरगद,
उखडता देखा|
सुबह अनगिनत टूटे पेड़ देखे,
नीचे,
जिन्हें बरगद ने बड़ा किया था,
खुद की निगरानी में,
उनके बदले धूप झेलकर,
आँधी साथ खेलकर।
मिट्टी की टूटी वो चाय दुकान देखी,
जहाँ बिस्कुट खाने की दादा से रोज जिद कर जीतता,
और कुल्हड़ में पहलेपहल गरम चाय पीना सीखता,
उसकी खपरैल छत को पैरों के पास देखा।
और सफ़ेद कपडे में,
गेंदे के हार से सजी,
पहली बार
एक लाश देखी।
लाश राजू के सोये दादा की थी,
जिनके पास पहली बार शतरंज देखा।
राजू अब चाय नहीं बेचता,
उसे शहर की एक बड़ी दुकान का मालिक बनते देखा।
बरगद जाने के बाद वहां वीराना न है,
उसी बारिश में एक आम की फेंकी गुठली से,
अंकुर बढ़ कर एक वृक्ष होता देखा,
जो गली के बच्चों को टिकोले देता नहीँ थकता।
इंसानों को थमते देखा,
चोट खा गिरते देखा,
दुःख पर रुकते, सुख पर हँसते देखा।
पर,
ज़िन्दगी को कभी इंतज़ार करते नहीं देखा,
चलते, गिरते और सँभलते देखा।
न आँखों में कोई गिला देखा,
न पैरों में इतिहास के जंजीर देखे
हर पल उसे बहते देखा
ऐसे,
जैसे कि,
आम्र वृक्ष युग के प्रारम्भ से यहीं है,
और राजू के दादा को किसी ने नहीँ देखा।

Thursday, November 15, 2018

माई के नाम का ख़त

तुम्हारे एक ख़त का
इंतज़ार अब भी है।
तलाश ख़त्म कहाँ हुई मेरी।
साँस टूटने तक
दरवाजे पर
आस टिकी रहेगी।
नीली अन्तर्देसी में
नीले कलम से तुम्हारी लिखावट
मायूस हो ताकती है मुझे।
कहना चाह कर भी जो कह न पाते तुम
मैं पढ़ लेती
और चार आँसू टपका लेती।
पन्नों पर आंसुओं के धब्बों पर
अँगुली फिरा
दो पल सिसक लेती हूँ कभी
जब तुम्हारे बच्चे घर पर नहीं होते।
एक ख़त और लिखो,
कि आखिरी अन्तर्देशि आए
एक ज़माना हो गया।