Tuesday, October 15, 2019

प्लेटफार्म के बाहर

अच्छा है तुम याद नहीं करती हो,
पुरानी चिट्ठियाँ पढ़ वक़्त ख़राब नहीं करती हो,
ना मेरी तरह सोचती हो,
नदी के सीढ़ी घाट को,
ना पूछती हो लोगों से,
उस बुढ़िया पुजारन का हाल,
जो प्रसाद के साथ आशीर्वाद दे जाती थी
और एक सेव का टुकड़ा
आँचल में बाँध तुम्हारे लिए छुपा लाती थी।
अच्छा है कि तुम याद नहीं करती हो,
मझधारों से अब ये सवाल नहीं करती हो,
कि उनकी कोई मंजिल है,
और ना गंगा में बह रहे दीये पर
उनके बुझने तक ध्यान साधती हो।
ख़ुशी को जरुरत कहाँ यादों की कील की,
टंग कर फहरने के लिए?
अब कभी भी शिवजी के मंदिर,
का वो अनवरत जलने वाला दीपक याद आए,
तो अर्जी डाल देना मेरी,
कि मेरी यादें जल भभूत बन विसर्जित हो जाएँ,
गंगा में सदा के लिए।
शिवजी ने तो सारी अर्जियां सुनीं तुम्हारी,
बस बाकियों के लिए पत्थर बन बैठे हैं।

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