Friday, February 5, 2016

कुहरा

जब तुम्हारी इक मुस्कान के सैकड़ों मतलब होते थे,
तब गगन की काली कालीन,
सपनें बोने का खेत होती थी,
जहाँ खुदा हीरे झाड़ता था।
मेरी चाहत के अरमान सुन वो तारे शरमाते,
फिर टूटते और बेचिराग होते जाते।
सन्नाटे की पसरी चादर पर लेटकर,
मैं इकटक इंतज़ारता एक और तारे के टूटने का,
नींद की थपकी आने तक
एक अरमान और बोने का।
जब तुम्हारी इक हँसी के सैकड़ों मतलब होते थें
तब तुम्हारी आँखों में कहानियाँ चमकतीं थीं,
और मेरा मन पंछी कबीरा जुलाहा होता था।
यूँ मेहनतकश,
कि तुम्हारी इक अदा पर
एक घोंसला ही बुन डालता,
कभी पेड़ पर, कभी बर्फ़ पर,
कभी धुएँ से अर्श पर,
चहुँओर, आशियाँ ही आशियाँ।
अब,
जब वक़्त की लौ गाढ़ी हो चली है,
तो अक्स में हँसी की रेखा साफ़ दिखती है,
हँसी,
इक वक्र रेखा है केवल,
अब जो न बेधती है न बाँधती है।
वोह तो एहसास का कुहरा था,
जहाँ हँसी की खनखनाहट बजती थी,
जहाँ सपनों का झरना फूटता था,
जहाँ एक-एक पल इक सिनेमा था,
और एक मुस्कान इक कथा।
वो कुहरा ही है शायद,
जहाँ असीमित आशा के कोख में,
आज भी सपने दबे पड़े हैं,
जहाँ ज़माने बीतना चाहते हैं एक पल में,
जहाँ हज़ार रंगों के हरे रंग आँख देखता है,
और रातरानी हर हवा में घुली होती है।
जहाँ शांति सन्नाटे को बाँहों में कस कर समेटी होती है,
वह कुहरा है।
हाँ, कुहरा ही है।
हाँ, हाँ, कुहरा ही चाहिए।
दस ग्राम कुहरा, सिर्फ दस।