बचपन की इक रात को,
उजली बिजली में,
जड़ से एक बरगद,
उखडता देखा|
सुबह अनगिनत टूटे पेड़ देखे,
नीचे,
जिन्हें बरगद ने बड़ा किया था,
खुद की निगरानी में,
उनके बदले धूप झेलकर,
आँधी साथ खेलकर।
उजली बिजली में,
जड़ से एक बरगद,
उखडता देखा|
सुबह अनगिनत टूटे पेड़ देखे,
नीचे,
जिन्हें बरगद ने बड़ा किया था,
खुद की निगरानी में,
उनके बदले धूप झेलकर,
आँधी साथ खेलकर।
मिट्टी की टूटी वो चाय दुकान देखी,
जहाँ बिस्कुट खाने की दादा से रोज जिद कर जीतता,
और कुल्हड़ में पहलेपहल गरम चाय पीना सीखता,
उसकी खपरैल छत को पैरों के पास देखा।
जहाँ बिस्कुट खाने की दादा से रोज जिद कर जीतता,
और कुल्हड़ में पहलेपहल गरम चाय पीना सीखता,
उसकी खपरैल छत को पैरों के पास देखा।
और सफ़ेद कपडे में,
गेंदे के हार से सजी,
पहली बार
एक लाश देखी।
गेंदे के हार से सजी,
पहली बार
एक लाश देखी।
लाश राजू के सोये दादा की थी,
जिनके पास पहली बार शतरंज देखा।
जिनके पास पहली बार शतरंज देखा।
राजू अब चाय नहीं बेचता,
उसे शहर की एक बड़ी दुकान का मालिक बनते देखा।
उसे शहर की एक बड़ी दुकान का मालिक बनते देखा।
बरगद जाने के बाद वहां वीराना न है,
उसी बारिश में एक आम की फेंकी गुठली से,
अंकुर बढ़ कर एक वृक्ष होता देखा,
जो गली के बच्चों को टिकोले देता नहीँ थकता।
उसी बारिश में एक आम की फेंकी गुठली से,
अंकुर बढ़ कर एक वृक्ष होता देखा,
जो गली के बच्चों को टिकोले देता नहीँ थकता।
इंसानों को थमते देखा,
चोट खा गिरते देखा,
दुःख पर रुकते, सुख पर हँसते देखा।
चोट खा गिरते देखा,
दुःख पर रुकते, सुख पर हँसते देखा।
पर,
ज़िन्दगी को कभी इंतज़ार करते नहीं देखा,
चलते, गिरते और सँभलते देखा।
न आँखों में कोई गिला देखा,
न पैरों में इतिहास के जंजीर देखे
हर पल उसे बहते देखा
ऐसे,
जैसे कि,
आम्र वृक्ष युग के प्रारम्भ से यहीं है,
और राजू के दादा को किसी ने नहीँ देखा।
ज़िन्दगी को कभी इंतज़ार करते नहीं देखा,
चलते, गिरते और सँभलते देखा।
न आँखों में कोई गिला देखा,
न पैरों में इतिहास के जंजीर देखे
हर पल उसे बहते देखा
ऐसे,
जैसे कि,
आम्र वृक्ष युग के प्रारम्भ से यहीं है,
और राजू के दादा को किसी ने नहीँ देखा।
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