Whenever a poem leaves you, it pushes you to an edge; an edge of abyss of dark and unknown. You get closer to the line from where people fall. Many say 'it's foolish'. But a longing sprouts in a dark corner of your heart to meet the unknown and know the shapeless hole. Many say 'It's madness'. But you walk to the hole and suffer. And suffer more in the darkness and apathy of that deep dead well. You suffer and write. Well, most of the times, you don't write, you just suffer.
Tuesday, March 24, 2015
Sunday, March 22, 2015
वक़्त और जीवन के बीच संवाद
मैं ठहरता हूँ जब तुम हौंसलों से गले मिलते हो।
तब धीमे चल स्मृतियों के पटल पर ला बिखेरता हूँ
वो दृश्य जिनमें कोपलें बरगद हुईं
और धूल बने पर्वत,
धरती चाँद बनी और
तारे हुए सूरज।
तुम्हारी खुशियों में मल्हार सा झूमता,
संग तुम्हारे नभ को भी चूमता,
अनुभव को त्याग कर फिर बहता,
यूँ कि जैसे कभी थमा ही नहीं।
तुम्हारे दुःख में साँस मेरी भी छूटती,
लहूलुहान रेंगती, चिल्लाती, टूटती।
फिर चुपके एक क्षण में,
उम्मीद का अंकुर बोता,
यूँ जीता कि जैसे कभी मरा ही नहीं।
जिंदा एहसास कर,
बाँहों में कस मुझे तुम चलते,
जीवन से शून्य की ओर टहलते,
मेरे असंख्य जीवों से प्रेम पर तुम बिलखते,
यूँ कि सब जान तुम कुछ मानते ही नहीं।
यूँ कि सब जान तुम कुछ मानते ही नहीं,
कि फिर तुम धरती चीर आओगे
कि जीवन-मृत्यु की चिंता त्याग प्रेम करोगे,
यूँ कि जैसे फिर कभी बिछड़ोगे ही नहीं।
तब धीमे चल स्मृतियों के पटल पर ला बिखेरता हूँ
वो दृश्य जिनमें कोपलें बरगद हुईं
और धूल बने पर्वत,
धरती चाँद बनी और
तारे हुए सूरज।
तुम्हारी खुशियों में मल्हार सा झूमता,
संग तुम्हारे नभ को भी चूमता,
अनुभव को त्याग कर फिर बहता,
यूँ कि जैसे कभी थमा ही नहीं।
तुम्हारे दुःख में साँस मेरी भी छूटती,
लहूलुहान रेंगती, चिल्लाती, टूटती।
फिर चुपके एक क्षण में,
उम्मीद का अंकुर बोता,
यूँ जीता कि जैसे कभी मरा ही नहीं।
जिंदा एहसास कर,
बाँहों में कस मुझे तुम चलते,
जीवन से शून्य की ओर टहलते,
मेरे असंख्य जीवों से प्रेम पर तुम बिलखते,
यूँ कि सब जान तुम कुछ मानते ही नहीं।
यूँ कि सब जान तुम कुछ मानते ही नहीं,
कि फिर तुम धरती चीर आओगे
कि जीवन-मृत्यु की चिंता त्याग प्रेम करोगे,
यूँ कि जैसे फिर कभी बिछड़ोगे ही नहीं।
Monday, February 16, 2015
Observations
Most of the times, I find people loving images more than the person. An image has no context, no heart throbbing situations and few impressions of fallibility. I suppose, this ingrains a negative seed of search for perfection. Constantly holding back intuition of such findings that demands serious efforts should always be put to curb the optimism of such search. O perfect people, why you're always in mind or in movies?
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