Sunday, March 22, 2015

वक़्त और जीवन के बीच संवाद

मैं ठहरता हूँ जब तुम हौंसलों से गले मिलते हो।
तब धीमे चल स्मृतियों के पटल पर ला बिखेरता हूँ
वो दृश्य जिनमें कोपलें बरगद हुईं
और धूल बने पर्वत,
धरती चाँद बनी और
तारे हुए सूरज।

तुम्हारी खुशियों में मल्हार सा झूमता,
संग तुम्हारे नभ को भी चूमता,
अनुभव को त्याग कर फिर बहता,
यूँ कि जैसे कभी थमा ही नहीं।

तुम्हारे दुःख में साँस मेरी भी छूटती,
लहूलुहान रेंगती, चिल्लाती, टूटती।
फिर चुपके एक क्षण में,
उम्मीद का अंकुर बोता,
यूँ जीता कि जैसे कभी मरा ही नहीं।

जिंदा एहसास कर,
बाँहों में कस मुझे तुम चलते,
जीवन से शून्य की ओर टहलते,
मेरे असंख्य जीवों से प्रेम पर तुम बिलखते,
यूँ कि सब जान तुम कुछ मानते ही नहीं।

यूँ कि सब जान तुम कुछ मानते ही नहीं,
 कि फिर तुम धरती चीर आओगे
 कि जीवन-मृत्यु की चिंता त्याग प्रेम करोगे,
 यूँ कि जैसे फिर कभी बिछड़ोगे ही नहीं।

1 comment: